जप का मुख्य उद्देश्य ज्ञानचक्षु [ अर्थात् प्रज्ञा] का उन्मीलन है। कुण्डलिनी शक्ति को उद्बुद्ध करना ही ज्ञान का विकास है। यह क्रमशः भी हो सकता है और तगड़ा अधिकारी होने पर क्षण भर में भी हो सकता है। जिन लोगों का अचानक यानी एक क्षण में ज्ञान चक्षु का स्फुरण होता है, उन लोगों की क्रम विकास अवस्था नहीं रहती या पता नहीं लगता। इन लोगों के विषय में न कहकर साधारण साधकों के सम्बन्ध में कुछ कहूंगा।
भौहों के मध्य बिंदु का स्थान है। चित्त एकाग्र होने पर इसकी रश्मियाँ चारों ओर से उपसंहित होकर बिंदु में वापस आ जाती है। जिस प्रकार सूर्यमण्डल से किरणें चारों ओर विकीर्ण होती है, उसी प्रकार चित्त बिंदु से उसकी रश्मि माला बिखर जाती है। इसे विक्षिप्त–अवस्था कहते है। साधक साधना के जरिये गुरुकृपा से इस विक्षिप्त रश्मि समूह को वापस ले आता है और केंद्र स्थान पे प्रतिष्ठित करता है। यही एकाग्रता है। एकाग्रता के साथ ज्ञान की उज्ज्वल ज्योति प्रकट होती है। इस एकाग्रता की प्राप्ति साधारण साधकों के निकट क्रमशः सिद्ध होती है। इस क्रम का अनुसंधान करते हुए यथाविधि उसका अनुसरण करना ही साधक का कर्त्तव्य होना चाहिए। मूलाधार से आज्ञा चक्र तक 6 चक्र है, वे यंत्र स्वरूप है। इन यंत्रो की बहिर्मुख गति में सृष्टि का विकास होता है, और अंतर्मुख गति में सृष्टि का उपशम होता है। निवृति मार्ग का साधक सृष्टिमुख में न जाकर लय के पथ पर बढ़ जाता है।
मूलाधार में 4 पृथक दल के रूप में 4 रश्मियाँ या 4 वर्ण है। इन चक्रों का मध्य बिंदु चक्रेश्वर या चक्र की केंद्र शक्ति का अधिष्ठान है। ये चारों वर्ण ही इस राज्य को प्रकाशमान करते है। एक रश्मि संकुचित करने उसकी आश्रित अन्य सभी रश्मियाँ अपने आप संकुचित हो जाती है। जिस प्रकार मूलाधार चतुर्दल है, उसी प्रकार स्वाधिष्ठान : 6 दल, मणिपुर : 10 दल, अनाहत : 12 दल, विशुद्ध : 16 दल और आज्ञा चक्र : 2 दल है। दलसंख्या की समष्टि 50 दल है। इन पचास दलों में अकारादि वर्णमाला के पचास वर्ण है। यही अक्षमाला है-- यही योगी की असली जपमाला भी है।