एक समय था जब इस देश में एक चिंटी तक को मारना भी राष्ट्रीय अपराध घोषित था और सीधे फांसी की सजा का प्रावधान था। आज उसी देश के कानून जानवरों की हिंसा को सिर्फ वैध ही नहीं ठहराते वरन प्रोत्साहित भी करते हैं। इस पूँजीवाद के बल तले दब कर आज हम अपने ही राष्ट्रपिता द्वारा निर्दिष्ट सिद्धांतों को ताक पर रख कर चल रहें हैं। अहिंसा-प्रेमी राष्ट्रपिता महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी के सुप्रसिद्ध शब्द हैं,
“किसी भी राष्ट्र के चरित्र और विकास को मापने के लिए यह देखें कि वो राष्ट्र अपने यहाँ जानवरों से किस प्रकार का बर्ताव करता है।”
उन्होंने तो यह भी कहा था, “जो जानवर जितना अधिक लाचार और कमज़ोर है, उसे आदमी की क्रूरता से बचाने के लिए उतनी ही अधिक सुरक्षा का हक है।” परंतु पैसों की माया के समक्ष आज सभी महापुरुषों के कथन बौने हो चुके हैं। महाविनाश की इस ह्रदय-विदारक अनंत लीला से हमारे राष्ट्र की ही नहीं अपितु समूची मानव-प्रजाति की अधोगति सुनिश्चित है।
आज मानवता के पास जीवों को विशाल पैमाने पर नष्ट करने की सोच और क्षमता है। भोजन, वस्त्र, आभूषण, मनोरंजन, खेल, प्रयोग, संगीत, शिकार, विलासिता और मालवाहक के रूप में पशु और पशु उत्पादों की लोगों में मांग अनंत रूप से बढ़ती ही जा रही है। पशुओं पर एक अघोषित युद्ध-सा छिड़ा हुआ है। यह मानवता का उस पर एक ऐसा आक्रमण है जिसमें प्रतिपक्ष के पास अपनी रक्षा का कोई उपाय ही नहीं है। बेक़सूर, लाचार, मासूम जानवर अपने ऊपर आये खतरे से बेखबर प्रेम-अभिभूत हो आत्म-समर्पण कर देते हैं। लेकिन मानव उन पर कल्पनातीत ज़ुल्म करते हुए उन्हें तिल-तिलकर मौत के घाट उतार देता है। जानवरों के होलोकॉस्ट की प्रत्यक्ष तुलना नाज़ियों द्वारा वृहत् पैमाने पर किये गए सामूहिक-क़त्ल, विशेषकर यहूदियों के क़त्ल से की जाती है। कई लोग (विशेषकर पशु-उत्पादों के उपभोक्ता) इस पर आपत्ति करते हैं। परंतु आज जिस पैमाने पर और जिस रूप में पशुओं के प्रति हिंसा हो रही है, उसके समक्ष तो नाज़ियों द्वारा किया होलोकॉस्ट भी बौना पड़ जाता है। यह होलोकॉस्ट ठीक नाज़ियों द्वारा किये गए होलोकॉस्ट जैसा ही है, स्वार्थ और मुनाफे के लिए कत्लखानों में वृहत्-पैमाने पर क़त्ल, ट्रेन और ट्रकों जैसी समर्पित यातायात प्रणालियों का इस्तेमाल, फैक्टरी-फार्मों के रूप में सकेंद्रित शिविर (concentrated camps) और क़त्लखानों की स्थापना (death camps); सब कुछ मानवों पर हुए नाज़ियों के होलोकॉस्ट जैसा ही है। कैदियों पर प्रयोग करना और उनका वस्तुवीकरण कर देना भी बिल्कुल होलोकॉस्ट के समान ही है। कैदियों के प्रति सभी मानवीय व्यवहारों का उल्लंघन और उनके मूलभूत अधिकारों का हनन ठीक जानवरों पर आज किये जा रहे होलोकॉस्ट जैसा ही तो था!
होलोकॉस्ट की यातनाओं को झेलने के बाद किसी तरह बच गए इसाक बेशेविस सिंगर ने जानवरों पर की जा रही क्रूरता को देख कर कहा था,
“जानवरों के लिए सभी लोग नाज़ी हैं। उनके लिए यह एक शाश्वत ट्रेबलिंका है।”
उनके इसी कथन से प्रेरित हो “इटरनल ट्रेबलिंका” नामक शीर्षक से लिखी पुस्तक में चार्ल्स पेट्टरसन ने जानवरों पर हो रहे होलोकॉस्ट को विस्तार से वर्णित किया है।
हैनरी स्पिरा के शब्दों में, “उनकी पीड़ा गहन है, विस्तृत है, चहुँ-ओर फ़ैल रही है, नियमबद्ध व पेशेवर रूप से दी जा रही है और समाज द्वारा स्वीकृत है। और इसके शिकार जानवर अपनी रक्षा के लिए अपने आपको संगठित करने में अयोग्य हैं।”
जर्मन दार्शनिक मार्टीन हैड़ेग्गर ने अपनी नाज़ी-पार्टी की सदस्यता से लज्जित हो कर 1949 में दिए अपने एक भाषण में कहा था, “पशुओं की खेती अब एक यन्त्र-चालित खाद्य-उद्योग हो गया है, बिल्कुल वैसा ही, जैसे कि होलोकॉस्ट में गैस-चेम्बरों और एक्सटरमिनेशन शिविरों में लाशों का उत्पादन होता है।”
आप चाहे इसे होलोकॉस्ट मानें या न मानें, लेकिन होलोकॉस्ट से तुलना इस बात को ज़रूर जग-ज़ाहिर करती है कि मानवता की उद्दंडता कितने बड़े पैमाने पर पशुओं के प्रति नाजायज क्रूरता और हिंसा कर रही है। यह हमारी दुनिया को खत्म करने वाले छट्ठे महाप्रलय की नींव डाल चुका है। अब फिर चाहे आप इसे होलोकॉस्ट कहें या कोई अन्य नाम दें, किन्तु इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि मानवता अपने निश्चित अंत की ओर तीव्रता से बढ़ रही है।
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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें, अगला भाग:
मौत के सौदों में व्यापारिक-लाभ और सिद्धांतवाद का खेल
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी
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