भाग – 2, प्रविष्टि – 7: जब खरपत को मिली “जीने की सज़ा” [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती]

in IndiaUnited Old5 years ago

प्रविष्टि – 7
जब खरपत को मिली “जीने की सज़ा”


[खरपत के जीवन की सत्य-कथा पर आधारित]

‘मौत की सज़ा’ सुन अच्छों-अच्छों की रूह कांप उठती है। परंतु इससे बदतर क्या हो सकता है जब मौत एक दवा लगने लगे और जीना एक घिनौनी सज़ा! खरपत की जीवन-कथा हर दर्द को बौना कर देती है। कहते हैं कि गहनतम दुखों की लम्बी रात बितने के बाद भी खुशियों का उजाला अवश्य होता है। किन्तु खरपत के दुखों की रात इतनी लम्बी और घनघोर काली है कि उजाले की कोई किरण भी उसे चीरने का साहस नहीं जुटा पाती।

खरपत अपनी माँ से कभी नहीं मिला था। कुछ जालिमों ने जन्म होते ही उसे उसकी माँ से अलग कर दिया था। खरपत उस नर-चूज़े का नाम है जो अण्डों के लिए प्रजनन किये जाने वाली मुर्गियों के एक व्यावसायिक मुर्गी-फार्म में पैदा हुआ था। अन्य पेशेवर मुर्गी-फार्मों की तरह यहाँ भी पैदा होने वाले सभी नर-चूजों को पैदा होते ही पैरों तले रौंद कर मार दिया जाता है या फिर स्वचालित कन्वेयर बेल्टों पर लाद कर चक्की से भी बड़े और विशाल स्वचालित ग्राइंडरों में भर कर मसल कर पीस दिया जाता है।

नर-चूजों का पालन करना इन पेशेवर मुर्गी-फार्मों के लिए पूर्णतः घाटे का सौदा है। क्योंकि बड़े होने पर न तो ये अंडें दे पाते हैं और न ही इनका माँस मादा-ब्रोइलरों की भांति स्वादिष्ट होता है। और न ही इनका वजन मादा-चूजों की भांति जल्दी से बढ़ता है। जब बाज़ार में एक-दिन उम्र के मादा-ब्रोइलर की कीमत भी पूरे एक रुपये नहीं मिलती, तो इन ‘निक्कमे’ नर-चूजों का कोई क्या मोल देगा? इसलिए इन्हें एक भी दिन के लिए अपने फार्मों में रहने के लिए जगह और दाना-पानी देना व्यावसायिक हितों के खिलाफ है। अतः उनके लिए ये एक औद्योगिक कचरे से ज्यादा कुछ नहीं है।

परंतु खरपत इतना ‘भाग्यशाली’ अवश्य था कि वह पैरों तले रौंदे जाने से होने वाली मौत से किसी तरह बच गया। गंभीर रूप से घायल हुआ वह एक कोने में पड़ा-पड़ा अपने अन्य साथियों को मारा जाते हुए देख रहा था। बाहर की दुनिया का भीषण प्रलय-सा नज़ारा और अंदरूनी चोटों की असहनीय पीड़ा के मारे उसकी चीखें रूक नहीं पा रही थी।

शायद इसी वजह से एक ‘नेकदिल’ कर्मचारी का ध्यान उसकी तरफ चला गया। उसने अपने मजबूत हाथों से उसके सिर पर प्रहार करते हुए उसे सिर के ही बल पकड़ कर उठाया एवं पास के कचरे के ढ़ेर में उछालकर फेंक दिया। बेचारा खरपत! उसकी तो चीखें पहले ही रूकने का नाम नहीं ले रही थी और इस घटना से तो सीधे उसके सिर एवं मस्तिष्क में गंभीर चोटें पहुँची। अब तो चीखने भर की भी हिम्मत नहीं बची।

चारों ओर उसी की तरह आज ही जन्में नर-चूजों की लाशों का ढ़ेर बिछा हुआ था। उसकी आँखों के सामने भी अँधेरा-सा छाने लगा। कुछ ही देर में अधमरा खरपत बेहोंश हो गया। कई दिनों तक वो वहाँ यूँ ही पड़ा रहा।

परंतु उसकी जिजीविषा शक्ति कमाल की थी। जब-जब उसे थोडा-सा भी होंश आता, वो उसी कचरे के ढ़ेर में से कुछ खा-पी लेता। चारों तरफ अपने ही भाइयों की लाशों से उठती दुर्गन्ध एवं अपनी ही मिन्गनियों, शौच एवं सड़ती हुई लाशों के कचरे के ढ़ेर के बीच वह अपने खून से लथपथ शरीर से अपने जीवन की लड़ाई को ज़ारी रखता।

सौभाग्य से जनवरी, 2015 की एक सवेरे एक पशु-बचाव दल की नज़र खरपत पर पड़ी और तुरंत उसे चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराई गई। एक लम्बी और गहन चिकित्सा प्रक्रिया से गुजरने के बाद खरपत बच ज़रूर गया, किन्तु पूर्णतः स्वस्थ कभी नहीं हो पाया। पहले ही दिन चीखों-चीत्कारों से शुरू हुआ उसका जीवन क्या कभी दर्द और कराहों से मुक्त हो पायेगा? वह अब तक यह समझ नहीं पाया कि उसका कसूर क्या था! क्या गुनाह किया था उसने, किस अपराध की सज़ा दी गयी थी उसे?

बात सिर्फ खरपत की नहीं है। ऐसी लाखों घटनाएँ रोज़ हो रही है और कोई इनके बारे में सोचने को भी राज़ी नहीं है। ऐसी असंख्य घटनाएं रोज़ घटती है केवल इसलिए कि हम “इनका” अंडा खाना “अपना” हक समझते हैं! हमारी “समझ” और इनकी मासूमियत के विकल्प में अगर एक को चूनना हो तो मैं “नासमझ” कहलाना अधिक पसंद करूंगा। वैसे आगे के एक अध्याय में हमने अंडे से बने उत्पादों को खाने की अनावश्यकता को अधिक स्पष्टता से समझाया है। अंडे जैसे क्रूरता से भरे हुए उत्पाद को खाने की मानव के जीवन के लिए कोई भी अनिवार्यता नहीं है। अण्डों के विकल्प के रूप में आज हमारे पास कई निरवद्य (vegan) खाद्य पदार्थ बाज़ार में आसानी से उपलब्ध हैं, जो हमें इससे बेहतर पोषण के साथ ही वही स्वाद भी दे सकते हैं। यकीनन उसे जानने के बाद ही आप बेहतर फैसला ले पाएंगें।

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इसी श्रंखला में आगे पढ़ें:

प्रविष्टि – 8: अण्डे-मुर्गी की कहानी का रहस्य

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी