लक्ष्मी
लक्ष्मी पूजन के लिए किसी के पास सुविधा हो या न
हो, मगर एक नन्हा दीपक, अपनी दहलीज पर रखने के
लिए हर कोई अवसर बटोर ही लेता है । लक्ष्मी मैया कहीं
भूले भटके आ जाएं तो रास्ते पर कम से कम रोशनी तो रहे
इसीलिए अमावस्या की गहरी रातों को चीर कर प्रकाश
फैलाने वाले नन्हे दीपक सब कहीं है- विशाल अट्टालिकाओं
से लेकर साधारण झोपड़ियों तक। और यही सब देख कर
दीपावली के बारे में मन कह उठता है- ‘यह तो ज्योति पर्व
है। उस अखण्ड, अनन्त और शाश्वत ज्योति की वन्दना,
जो इस सृष्टि का आधार है, जीवन का सम्बल है और
प्रगति का पाथेय है।'
वैदिक काल के ऋषि नित्य उठकर प्रभु से प्रार्थना
किया करते थे- अपने को अंधकार से प्रकाश की ओर ले
चलने के लिए उनके स्वर संगीतमय ध्वनि में फूट पड़ते
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्म अमृत गमय।
असत्य और मृत्यु भी अंधकार के प्रतीक है। उन्हें।
छोड़कर वे सत्य तथा अमरता की ज्योति को प्राप्त करना
चाहते थे। अंधकार से निरन्तर प्रकाश की ओर बढ़ने की
कामनामनुष्य की शाश्वत प्रकृति में रही है। प्रकाश का
अक्षुण्ण भंडार सूर्य है। इसलिए वह उसी को अपना गंतव्य
मानता रहा । वेदोक्ति है- अज्ञान रूपी अंधकार से हम उत्तरोत्तर प्रकाश की ओर बढ़ते हुए सूर्य के समान उत्तम ज्योतिर्मयी सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त करें।
ज्योतिपुंज सूर्य को अपने लिए परम हितकारी मानते
हुए ऋग्वेद का कवि, प्रभु से कामना करता है- ‘देवताओं के
द | परम हितकारीसामने उदय होते हुए उस प्रकाशमान सूर्य
को हम सौ शरद् तक देखते रहें। हम सौ शरद् तक जीवित
रहें । सौ शरद् तक सुनते रहें । सौ शरद् तक वाशील रहें।
परवश हुए बिना सौ शरद् बिताएं। हे देवहम ऐसी सैकड़ों
शरदों की कामना करते हैं
ऋग्वेद में ही एक अन्य स्थान पर सूर्य के कल्याणकारी
स्वरूप की कामना करते हुए कहा गया
हे प्रभु ! विपुल तेज वाला सूर्य हमारे लिए
कल्याणकारी होकर उदित हो। चारों दिशाएं हमारे लिए
कल्याणकारी हों। अविचल पर्वत हमारे लिए कल्याणकारी
हों। नदियां हमारे लिए कल्याणकारी हों। उनके जल हमारे
लिए कल्याणकारी हों।
यजुर्वेद का रचयिता भी सूर्य को सबका जनक मानकर
उससे मंगलमय बुद्धि की कामना करता है- ‘सबके दिव्य |
जनक और प्रेरक (सूर्य) के वरणीय तेज का हम ध्यान करते |
हैं, ताकि वह हमारी बुद्धि को मंगलमय प्रेरणा दे।'
ज्योति की वंदना सर्वत्र है। सब देशों में है । सब
धर्मों में है। परिस्थिति और वातावरण के अनुसार उसके
स्वरूप में अन्तर संभव है। यह वंदना सर्वकालिक भी है।
पहले ज्योति की जो वन्दना थी, वह आज भी है। प्रत्येक
मांगलिक कार्य में दीप-ज्योति जगाना उसी का एक रूप है।
कोयलागैस या तेल से प्राप्त ऊर्जा भी उसी ज्योति का
प्रतिफल है। सौरऊर्जा प्रत्यक्षत: सूर्य से ज्योति की प्राप्ति | है
है। अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में ओलम्पिक-ज्योति भी ज्योति की
ही वंदना है।
भारतीय संस्कृति में ज्योति का अभिप्राय केवल भौतिक |
प्रकाश ही नहीं आध्यात्मिक प्रकाश भी है। कठोपनिषद् के |
ऋषि जब मनुष्यों को उदबोधित करते हुए कहते हैं- '। | है
अज्ञानी , उठोजागो और श्रेष्ठ लोगों की
व्यक्तियोंसे ज्ञान प्राप्त करो' तो उसका अभिप्राय उस आध्यात्मिक प्रकाश की प्राप्ति से ही है।
दीपक को सूर्य का एक अंश माना गया है- 'सूर्याशा
संभवो दीप:' और यह दीपक ज्ञान-ज्योति का प्रतीक है।
अंधकार अज्ञान का ही रूप है और उसे दूर करने के लिए
ज्ञान-ज्योति के दीपक की आवश्यकता होती है। ऋग्वेद में
प्राणों के दीपक को जलाने के लिए उस अग्नि की
आवश्यकता पर बल दिया है, जो ज्योतिस्वरूप ब्रह्म है।
निराकार ब्रह्म , विश्वास रखने वाले व्यक्ति सामान्यत:
इस ज्योति में ही प्रभु के दर्शन कर लेते हैं। प्रभु सम्पूर्ण
शक्ति और सामथ्र्य के स्वामी हैं। ज्योति भी उसी शक्ति का
एक प्रतीक है । प्रभु सभी प्राणियों में निवास करते हैं और
इस रूप में मनुष्य स्वयं भी उसी ज्योति का एक अंश है।
कांची के जगद्गुरु शंकराचार्य ने एक स्थान पर श्री शंकर
भागवतपद का एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें ज्योति
के संदर्भ में गुरु शिष्य के बीच एक संवाद का उल्लेख है।
इस श्लोक में, इसी आत्म-ज्योति का वर्णन किया गया है,
गुरु -वह ज्योति कौनसी है, जिसके द्वारा तुम विश्व के पदार्थ को देखने में समर्थ हो ?
शिष्य-दिन में वह सूर्य है, रात्रि में दीपक है।
गुरु-ऐसा ही होगा। परन्तु मुझे बतलाओ कि वह
कौनसा प्रकाश है, जिसके द्वारा सूर्य और दीपक आदि तुम्हें
दिखलाई पड़ते हैं ?
शिष्य-नेत्र।
गुरु-जब नेत्र बंद हो जाते हैं या आदमी अंधा हो
जाता है, तब कौन-सा प्रकाश होता है ?
शिष्य-बुद्धि।
गुरुवह कौनसा प्रकाश , जिसके द्वारा बुद्धि दिखलाई।
पड़ती है और अनुभव की जाती है ?
शिष्यउस स्थिति में वह मैं स्वयं हूं। मैं अर्थात् मेरा
अंतरतम्। अतएव गुरदेव का सर्वोच्च प्रकाश आप हैं। वही
प्रकाश में हूं ।
कथन सत्य है। परमात्मा परम सत्य है और इसलिए
वह प्रकाशों का प्रकाश है, परम प्रकाश का स्वामी है।
प्रकाश-पुंज सूर्य उसी का भौतिक और बाहरी रूप है।
आत्मापरमात्मा का ही एक अंश है ।और इस प्रकार आत्मा
भी प्रकाश की स्वामिनी है। यह वही अन्तर्रात्मा है जो सत्य
की प्रतिध्वनि है और जिसे महात्मा गांध तथा अन्य अनेक
संत महात्मा अपना पथ प्रदर्शक मानते थे। यह वही आत्मज्योति है, जिसके जागने पर रामचरितमानस के यह शब्द मुखरित हो उठते हैं
उधरहिं विलम विलोचन ही के
टिटहेिं दोष दुख भव रजनी के ।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रलयकाल में जब सर्वत्र
भयानक अंधकार छाया हुआ था, तब मनु प्रकाश की एक
किरण के लिए अत्यन्त व्याकुल थे। उस अंधकार का अनुभव
किए बिना, मनु की व्याकुलता का अनुमान सरल नहीं है।
यह व्याकुलता मात्र भौतिक प्रकाश के लिए ही नहीं थी,
बल्कि उस आध्यात्मिक ज्योति के लिए भी थी, जो उन्हें
किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से उबार कर एक सही मार्ग
निर्देशन कर सके।
ऋग्वेद के श्रीसूक्त में श्री लक्ष्मी को भी ज्योति रूप
बतलाते हुए उन्हें कहीं सूर्य के समान तेजवान और कहीं
चन्द्रमा के समान प्रभापूर्ण बतलाया है।
जो लक्ष्मी चन्द्रमा के समान प्रकाशमान है और यश
से जाज्वल्यमान है, साधारण मनुष्यों के अलावा इन्द्र तक
जिसकी आराधना करते हैं, ऐसी लक्ष्मी की शरण में जाना
चाहिए और कामना करनी चाहिए कि वे अलक्ष्मी का नाश करे
इस प्रकार लक्ष्मी ज्योति स्वरूप है। दीपलक्ष्मी के
रूप में उनकी प्रतिमा बनाकर हम उनके इस रूप को और
अधिक उजागर करते हैं। सर्वत्र प्रज्वलित दीप श्रृंखला
उनके ज्योति स्वरूप को चतुर्दिक फैलाती है। इस प्रकार
दीपावली का यह महोत्सवज्योतिपर्व के रूप में हमारे
सामने उभर आता है। ज्योति का पूजन वस्तुत: शक्ति का
पूजन है। इस पूजन के माध्यम से हम अपनी स्वयं की
अन्तर्रात्मा को शुद्ध बनाकरआत्मिक ज्योति को प्रखर बनाते
हैं। दीपावली का उत्सव मनाते समय इस भावना को हम
अपने अन्दर रखें और अपनी अन्तर्रात्मा को सभी कलुषों से
बचाकर उसे शुद्ध बनाएं तो यह महोत्सव निश्चित ही एक
सफल महोत्सव होगा।
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bahut achhi post hai aapki.
Thanks
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