Rights and duties part 2

in #india6 years ago

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The importance and existence of rights can be maintained only when used in a moderate and balanced way.
Existence can not be imagined.
The judiciary has set criteria for the limits of rights that no crackdown on them is based on selfishness and injustice.
Rights and Duties Two aspects of the same coin
Are there. Do not be separated from each other
can. Without a second the imagination did not
Can go Where rights, there is duty. Of one
Rights is the duty of another. Dutiful rights
It's nonsense. Citizens in today's Swarajnag era
Have forgotten their duties. Just your rights
Prove itself. This is why the chaotic chaos in the nation
And the atmosphere of disorder has become. Rights
Last accomplishment and extreme power are not. Also of duties
Have your place. Without them the nation can not even do the life of a family even for one day.
For the precious glory of national pride is similar. Today, there are very few of us citizens who really
Has the perception of his duties. Our involvement in national development is limited to just voting. When we do not have our duties, how can we say that we are the world's largest democracy and its citizens
is. When something goes very easily in our pocket, then it can not be accurately evaluated.
The irony is that the original duties have been included in the constitution but punished them for violation
The system has not been arranged. In many countries of the world, if a citizen does not follow basic duties towards the nation. So punishment has been made for him. It is a system of denying it to citizenship. It is important for every citizen to take care of his duties, to make him aware of these duties. Only then that nation
Save the high end in the heart. Campaign for awareness of duties with rights.
should go.

अधिकारों का महत्व एवं अस्तित्व तभी तक बना रह सकता है जब उनका संयत एवं संतुलित रूप से प्रयोग किया जाए ।दूसरों के अधिकारों पर आघात पर आघात कर के इनके
अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती ।
न्यायपालिका ने अधिकारों की सीमा के मापदंड निर्धारित किए हैं कि उन पर कोई अंकुश स्वेच्छाचारी तथा अन्याय पर आधारित नहीं हो।
अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। दोनों को एक दूसरे से अलगथलग नहीं किया जा
सकता। एक के बिना दूसरे की कल्पना तक नहीं की
जा सकती । जहाँ अधिकार, वहां कर्तव्य है। एक का
अधिकार दूसरे का कर्तव्य है। कर्तव्यहीन अधिकार
निरर्थक है। आज के इस स्वार्यान्ध युग में नागरिक
अपने कर्तव्यों को भूल गया है । सिर्फ अपने अधिकारों
को ही सिद्ध करता है। इससे राष्ट्र में चतुर्दिक अराजकता
और अव्यवस्था का वातावरण बन गया है। अधिकार
अंतिम सिद्धि तथा चरम साध्य नहीं है। कर्तव्यों का भी
अपना स्थान है। इनके बिना राष्ट्र तो क्या परिवार का जीवन भी एक दिन के लिए भी नहीं चल सकता कर्तव्य हमारे
लिए राष्ट्रीय गौरव की कीमती मंजूषा के समान है। आज हमारे बीच ऐसे नागरिक बहुत कम है जिनको वास्तव
में अपने कर्तव्यों का बोध है। राष्ट्रीय विकास में हमारी भागीदारी सिर्फ मतदान करने तक सीमित रह गई है। जब हमें अपने कर्तव्यबोध ही नहीं हो तो हम कैसे कह सकते हैं कि हम विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र और उसके नागरिक
है। जब कोई चीज बहुत आसानी से हमारी जेब में आ जाती है तो उसकासमुचित मूल्यांकन नहीं हो पाता।
विडम्बना यह है कि मूल कर्तव्यों को संविधान में तो शामिल कर लिया गया है लेकिन उनके उल्लंघन पर दंड की
व्यवस्था नहीं की गई है ।विश्व के अनेक देशों में यदि कोई नागरिक राष्ट्र के प्रति आधारभूत कर्तव्यों का पालन नहीं करता। तो उसके लिए दंड की व्यवस्था की गई है । उसे नागरिकता से वंचित कर देने तक की व्यवस्था है। प्रत्येक नागरिक द्वारा अपने कर्तव्यों की परिपालना के लिए जरूरी है कि उसे इन कर्तव्यों का बोध कराया जाए। तभी वह राष्ट्र के
प्रति उच्चाद को हृदय में संजो कर रख सकेगा। अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरुकता का अभियान चलाया।
जाना चाहिए।

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