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वैश्विक समस्याओं का एक प्रमुख कारण हमारी अति-उपभोक्तावाद की संस्कृति का अपनाना है। इस भौतिकता-प्रधान जीवनशैली के कारण हमारा उत्पादों का अत्यधिक उपभोग करने एवं गैर-आवश्यक ज़रूरतों की पूर्ति की चाह के फैलते परों की वजह से जहाँ एक ओर प्रकृति के सीमित संसाधनों की कमी हो रही है, वहीँ दूसरी ओर भोगों-फेंकों (use & throw) शैली के प्रचलन से अनिष्पादनीय ज़हरीले कचरे के पर्वत खड़े हो रहे हैं।
सीमित प्राकृतिक संसाधनों का अति-दोहन तो एक समस्या है ही, उससे भी अधिक गंभीर स्थिति तब पैदा हो गई जब हमने उन ‘संसाधनों’ का भी दोहन शुरू कर दिया जो अव्वल तो ‘संसाधन’ ही नहीं थे। ‘संसाधन’ का नाम दे कर, हमने उनका ‘दोहन’ के नाम पर उनका शोषण शुरू कर दिया। ये ‘शोषित-संसाधन’, वे लोग हैं जो हमारे साथ ही इसी लोक में रहते हैं और उनका भी सभी प्राकृतिक संसाधनों पर उतना ही हक है जितना कि हमारा। परंतु चूँकि वे लोग अपना हक जताने में हमसे थोड़े कमज़ोर हैं तो हमने उन्हीं का घोर-शोषण करना शुरू कर दिया।
यहाँ हम बात कर रहें हैं उन लोगों की, जो हमारी प्रजाति के नहीं हैं, अन्य प्रजातियों से हैं। जी हाँ, प्राणी-जगत के वे सब लोग जो चैतन्य हैं, संवेदनशील हैं, मानव की ही तरह वे भी अनेक प्रकार से ममता, प्रेम, सुख, दुःख, पीड़ा, दर्द आदि अनेक भावनाओं का अनुभव करते हैं व जीवत्व और जिजीविषा से परिपूर्ण उनका अस्तित्व है। लेकिन प्रजातिवादी मानव अपने स्वार्थवश उन्हें ‘जीवित’ न मान कर उनका किसी निर्जीव वस्तु की तरह उपयोग करता है। उसने उनका वस्तुवीकरण कर दिया है।
किसी भी प्रजाति के जीव को मानव जब चाहे, जैसे चाहे एक वस्तु की तरह उठा कर फैंक देता है, जहाँ चाहे उसकी चीड़-फाड़ कर देता है, छिलकों की तरह उनकी चमड़ी उतार देता है, अंग-उपांग काट-छांट देता है और ये सब उसकी जीवित अवस्था में ही! और उनका क़त्ल करने में तो मानव रोज़ नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है! जीवन के अस्तित्व को नकार कर, जीवों को एक निर्जीव पदार्थ-मात्र मानकर व्यवहार करना, मानव के स्वार्थ की पराकाष्ठा एवं उसकी संवेदनाओं पर ज़मी मोटी परत की हृदय-विदारक दास्ताँ कहती है।
आज इस धरती पर प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ों नहीं अपितु अरबों-खरबों की संख्या में निरीह प्राणियों की हत्याएं की जा रही है। सम्पूर्ण मानव इतिहास में इतनी भयंकर त्रासदी इससे पहले कभी घटित नहीं हुई। आज आलम यह है कि ये दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। किसी भी अन्य प्राणी की संवेदनाओं के प्रति उदासीनता ही मानव को संवेदनहीन बनाती है। संवेदनहीन मानव ही दानव का रूप ले लेता है। आज इन प्राणियों की लाशें, खून, माँस, हड्डियों और चमड़ों की मांग से बाज़ार गरम है। बाज़ार में इससे बने उत्पादों की बढ़ती मांग ही तो और अनेक प्राणियों के जीवन को लीलने को आतुर है।
इतने वृहत् स्तर पर प्राणियों को मारने के लिए हमने अत्याधुनिक तकनीक से संचालित बड़े-बड़े कारखाने बना दिए हैं। जिस प्रकार से वस्तुओं का उत्पादन होता है, ठीक उसी प्रकार से हमने प्राणियों के ‘उत्पादन’ के लिए भी कई कारखाने स्थापित किये हैं। इनके ‘बेहतर’ ‘उत्पादन’ के लिए हमने कई ‘प्रजनन केंद्र’ विकसित किये हैं। उपभोक्ता को ‘वेरायटी’ और ‘क्वालिटी’ देने के मकसद से इनकी कई प्रकार की नस्लों का ‘उत्पादन’ किया है।
साफ़-सुथरी पैकेज़िंग और प्रोसेसिंग-रिफाइनिंग आदि प्रक्रियाओं के बाद उपभोक्ता के समक्ष इन प्राणियों के अवशेषों को एक ऐसे रूप में पेश किया जाता है कि उपभोक्ता को ये एक निष्प्राण वस्तु ही नज़र आते हैं। उसके पीछे छुपी क्रूरता भरे खूनी प्रसंगों की बेचारा उपभोक्ता तो कल्पना तक नहीं कर पाता। वो तो वाकई उन्हें अन्य निर्जीव वस्तुओं की ही भांति समझता है।
यदि आप किसी से पूछे कि हीरों के हार और मोतियों के हार में क्या अंतर है तो वह आपको कीमत और सौन्दर्य का ही अंतर गिना पाएगा। मोतियों के हार के पीछे कितना खून बहा व कितनी हत्याएं हुई उसका विचार दूर-दूर तक नहीं हो पाता। ऐसी ही कहानी रेशम की साड़ी, पशमीना की शॉल, चमड़े के पर्स या जूते, फ़र के परिधान आदि अनेक पशु-उत्पादों से बने सामान की है। भोजन, कपड़े, आभूषण, सौंदर्य-प्रसाधन, दवाइयाँ, साबून आदि अनेकानेक उत्पादों में पशु आधारित घटक हैं। लेकिन अधिकांश व्यक्ति इनसे बेखबर हैं। कभी आप उन्हें सच्चाई बताने का प्रयास करें भी, तो वह आपकी ओर अविश्वास से भरी नज़रों से देखेंगे। पहली बार तो आपकी बात झूठ और एक अफ़वाह ही लगेगी। परंतु सच्चाई यही है कि हमारी और आपकी ही वजह से प्रति-क्षण अनगिनत निरीह एवं मासूम प्राणी बेइंतहा दर्द में तड़पते-बिलखते अपने प्राण त्याग रहे हैं।
इससे पहले कि मैं आगे कुछ कहुं, हम लाशों की खेती एवं शिकार से मारे जाने वाले इन मासूम प्राणियों की संख्या और इन से संबंधित अन्य आंकड़ों पर एक नज़र डालें।
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अगले अंक में पढ़ें: प्रविष्टि – 4 बेहिसाब आतंक का गणित
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सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी
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