आज की ग़ज़ल

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आज की ग़ज़ल....

कुछ भी सोचा नहीं कुछ भी समझा नहीं ,
यूँ ही महफ़िल में वो बेनक़ाब आ गया ।
देखते ही उसे शोर बरपा हुआ ,
और महफ़िल में इक इंकलाब आ गया ।

इससे पहले उसे कोई इल्ज़ाम दो ,
गर भुलाने कोई इश्क़े-नाक़ाम को ;
शिद्दते-इश्क़ में दीद के वास्ते ,
भूल क्या है जो ज़ेरे-शिताब आ गया ।

उसके आते ही थे सख़्त हैरत में सब ,
सबके दिल में उठी वस्ल की इक तलब ;
कुछ ने सोचा कि है हूरे-जन्नत कोई ,
कुछ को ऐसा लगा माहताब आ गया ।

वो जो आया तो मुझ पर हुआ ये असर ,
इक नशे ने सरापा किया तर-ब-तर ;
उससे नज़रें मिलीं मुझको ऐसा लगा ,
हाथ में जैसे जामे-शराब आ गया ।

ये हक़ीक़त थी या ख़्वाबे-नाक़ाम था ,
ख़ूब सोचा प 'नादान' अनजान था ;
सुब्ह की ख़ुशनुमा ले के पहली किरन ,
देखिए दर पे वो आफ़ताब आ गया ।

राकेश 'नादान'

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Wah wah... wah wah...
Sehi jaa rahe ho.. :-)